रविवार, 4 अगस्त 2013

कहानी एक सीता की – कविता पाटील




रावण जल कर राख हो गया।
राम ने अपना कर्तव्य निभाया व मर्यादा पुरषोत्तम कहलाए।
राम ने सीता का हरण करने वाले दुष्ट रावण का विनाश कर बुराई पर अच्छाई का परचम पहराया। ये बात सत यूग की है, राम और सीता ने वनवास झेला व दुष्ट रावन की यातनाए सही, उन्हे वियोग था सीर्फ दुरी का और उनमें प्रेम था सात्विक व पवीत्र।
आज रावण नहीं है। वो हर साल पूतले के रुप में बनाकर जला दिया जाता है व राख बन जाता है। लेकिन कोन कहता है कि वो नहीं है ? मैं पूछती हूॅ राम कहॉ है ? शादी के नाम पर होने वाला ये सीता हरण खुले आम समाज व परिवार के सामने हो रहा है, जिसे रोकने वाला कोई राम अब नहीं। सत युग में सीता ने राम के आगे अग्नी परीक्षा दी थी, लेकिन आज की सीता रावण के आगे अग्नी परीक्षा का आयोजन करती है और समाज के सामने राम कहलाने वाले पति जो कि रावण बन बैठा है, उसके कदमों में रोज गीर कर उठती है।
समाज में जीवन के गुण रहस्यों कहॉ गया है कि शादी के बाद पति ही सरवस्व है, वो ही कर्ततव्य है, वो ही राम है और वो ही श्याम है। मैंने भी इस सच को अपने जीवन में ढ़ाला और आगे बढ़ी लेकिन कोई ये समझेगा कि सच नहीं सबसे बड़ा झुठ है।
रोज लुट कर आबाद होती हूँ,
रोज बिखर कर सिमटती हूँ,
रोज अरमान बनाकर तोड़ दी जाती हूँ,
रोज सवर कर फिर से उसी मोड़ पर ला दी जाती हूँ।
जहॉ कल खड़ी थी वहॉ आज भी हूँ , मानो अभी-अभी का ही वाक्या हो-
करीब 20 वर्ष पहले का वाक्या है-
कल वो फिर छोटी सी बात पर नाराज हो गए। मन में ये फास सदा चुभती रहती है कि प्रभू तुमने मुझे जु़बान क्यो दी? वो भी दी तो सही किया पर मन क्यो दिया? जिसमें मैं सोच-विचार करती हूँ और ढ़ेरों सवाल कर बैठती हूँ।
2-3 दिनों से बात-चित बन्द थी, आज बड़े अच्छे मुड़ में काम पर गए है, इसी कारण शाम को सम्भल कर रहूँगी कुछ भी नहीं बालूंगी चुपचाप जैसा वो चाहते है वैसा ही करुंगी, यही सोच कर उनके इन्तजार में दिन बित रहॉ था। पडोसन आई व अपने साथ बाजार ले गई साज-शन्गार की दुकान पर कुछ सामान लेना था उसे वो अपना मन पसन्द सामान ढुंड़ रही थी मेरी नजर यकायक आइने पर गई और पड़ोसन ने मेरी नाक में जबरदस्ती नथ पहना दी व कहने लगी ‘‘बड़ी सुन्दर लग रही हो रहने दो वारे जाएंगें वो।’’ उसके ये शब्द सुनकर रहा नहीं गया व मन ही मन इठलाने लगी व शरमाकर वही सीमट गई। हकिकत में मालुम नहीं कि वो जब सामने होंगे तब क्या होगा बस खयाली पुलाव काफी पकाए मन ही मन में व आईना देख-देख इठलाती व बलखती रही। आज दशहरा है क्यो न तैयार होकर बेठू कही घुमने चले जाएंगे,यही सोच कर तैयार हो हो गई। वो घर आए मैंने उनके हाथ से खाली टीफिन लिया व उनके आगे पिछे घुमने लगी। वो बिना हाथ मुह धोए पलंग पर लेट गए व मेरी सोतन को देखने लगे। अगर मै उसे बन्द करदु तो बहुत नाराज होते है और कहते है कि ‘‘अपने बाप के घर से नहीं लाई थी जिसे मैं न देखू।’’बड़े कड़े श्ब्दों का प्रयोग करते हैं कि ‘‘काटो तो खून नहीं व मांगो तो पानी नहीं।’’फिर भी बेगुनाह होकर भी सजा काट रही हूँ कि न जाने कितने पाप किये थे ?
हिम्मत कर उनके व टीवी के बिच बैठ गई, वो मुझे नजर अन्दाज कर बाहर की ओर चले गए। मैं मन ही मन अपने आप कूड़ रही थी कि वो अचानक भीतर आए व मुझे एक टक देखने लगे। मैं अभीमानीत होने लगी कि आज तो मैं सफल रही अपने प्रयास में कि तभी वो बोलते है कि ‘‘मुझे सूबह ही बोल देती मैं गज़रे वगरह ले कर आता।’’ मैं शरमाते हुए उनकी ओर बढ़ी मासुमियत भरी निगाहों से उन्हे देख शरारती अन्दाज़ में बोली कि ‘‘कोई बात नहीं अब ले आईए और अपने हाथों से मेरे बालों में लगा दिजीये, फिर हम बाहर घुमने चलते है।’’वो मुझे पिछे की ओर धकेलते है और बाहर जाते हुए कहते है कि ‘‘मैं अपने हाथो में गज़रा लपेट कर आने की बात कर रहा हूँ।’’ मैं उनकी बात समझ नहीं पाई व अज्ञानता वश उनके पिछे जाते हुए बोली ‘‘ ऐसा क्यो बोले आप ?वही हेवानीयत भरी निगाहो से देख मुझे बोले ‘‘ये नथ-वथ जो पहन रखी हैं आज।’’
एक रहस्य उजागर हुआ मेरा उनकी नजर में कि मेरा अस्तित्व क्या हैं उनके आगे। मैं वही खड़े-खड़े जमीन धस गई।
आज बाहर रावण का दहन है और समाज की नज़रो में दिखने वाला राम मेरे पति जो कि किसी रावण से कम नथे वो भी अर्थी पर तैयार है दाह सन्सकार के लिए। मेरा मन चिख-चिख कर कह रहा है कि उठो ओर देखों मेरे इस झुर्रियो से भरे चेहरे को बान्धो उन्ही मालाओं को अपने हाथों में गज़रा बना कर , उठोना‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘ उठते क्यो नहीं अब ?
बरसों बिती बाते ज़ख्म बन कर नासुर हो गई है जिन्हे वक्त के साए में रह कर फिर से खुरेच लिया करती हूँ व वो ज़ख्म फिर से हरे हो जाते हैं।
मिटा दो उस रावण को अपने दिल से। वरना आज ही नहीं हमेशा हर सीता अपने राम के सामने युही ज़मीन में धसती रहेगी।
कविता पाटील
kvpatil82@gmail.com
रतलाम म.प्र.

शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

kuch saval kuchh javab

कुछ सवाल - कुछ जवाब 


आखों में भी सावन है , बहारो में भी है सावन .

मन भादव का रूप , तन पतझड़ हो गया .

ये कैसी ऋतुएँ है, भीष्म के बाण सी लगे .

तृष्णा कैसी मन की , बूझे तब भी धुँआ निकले .



रात भर का अँधेरा , सुबह उजाला हो जाए .

द्वार बंद सफ़लता का , खुलेगा वो है विश्वास .

चाँद , सूरज , तारें , आँखों में भी है बसे .

बदल का रूप है मन , चाहे कही भी उड़ जाए .



परमात्मा बसा मन में , पर मन ना ये बात मने .

अधूरे विश्वास का , अँधेरा नज़र आए .

द्वार -द्वार भटके नैना , पलट कर मन में ही झाके .

सुन - सुन कर हमने,  बंधा अविश्वास का कच्चा धागा .

टूट -टूट जाए वो , पक्का बांधने  पर भी .

खुल - खुल जाए वो , कच्ची डोर के कारण .



पहरा दे रहा है ,किस्मत का लेखा - जोखा .

अच्छा कर्म और क्या ?बुरा कर्म और क्या ?

सुख दुःख का ये ,रास्ता है जीवन का .

इक मोड़ सीधा है ,तो दूजा मोड़ टेड़ा - मेढ़ा.

जीवन अनमोल ये ,आशाओं का पर्वत भी है .

कुछ काटों से है भरा ,कुछ फूलों से भी लड़ा .

धुप छाव का ये ,कल का समन्दर है .

कभी अतीत में झाकते है ,तो कभी भविष्य को सुख मय देखते है.

वर्त्तमान से सामना कर ,लड़ते - झगड़ते आगे बढ़ रहे है .




वर्त्तमान को अतीत व भविष्य को वर्त्तमान बनाने में लगे है .

प्रतियोगिता का समय सभी के करीब बेठा है ,

रोज सफलता - असफलता का द्वार खटखटाते नज़र आते है सभी ,

सभी में कही न कही हम भी इस दोर से गुजर रहे है ,

विचार सभी का एक नहीं मगर राह सभी कि एक है ----
                                                                         सफलता कि |

कृत -------------कविता पाटील ......

मंगलवार, 26 मार्च 2013


चंद शब्द .............

गुमनाम शांति

कही है दल-दल तो ,
 कही है खल-बलि।
जंग  का एलन होता नजर आता  है।
चीख पड़ती है शान्ति जगह-जगह से।
ख़ामोशी छा जाती है तन-मन।

जाए तो जाए कहा ?
खोजे तो खोजे कहा ?
मिल पाएगी या नहीं ?
बरसों से आ रहा हूँ ढूंडता।
सुन-सुन कर कान थक गए है कि
कहाँ मिलेगी वो ?
कहीं तो नहीं वो।
आखिर वो इस संसार में है भी या नहीं ?
है तो कहाँ ?

जंगलो में , गावों में ,
 शहरों में या घरों में ?
मुझे नज़र नहीं आती कही,
 ड़र  कर छुप तो नहीं गई ?
जब छाती है तो ऐसी छाजाती है कि 
 कोई है ही नहीं
और आज जब नहीं है तो मानो ,
भोले नाथ क्या ,
 सारा संसार कर रहा हो ताण्डव। 

कानों को पल भर आराम नहीं ,
पैरो पर पड़ गए है छाले ,
कलम नाम नहीं लेती रुकने का ,
कही क्या तो मन में  क्या ?
पता नहीं अभी क्या होगा ?
काश होता हमारे पास यमराज का पन्ना ,
हम भी जान पाते  अपनी मोत। 
अभी बहार निकले और
 न जाने कोन मारे चाकू?

पानी लिया पिने को तो निकल रक्त ,
न जाने किसका था ?
भाई-भाई लड़े , शहर - शहर लड़े ,
देश - विदेश , ग्रह - नक्षत्र लड़े , 
आखिर एक दिन ऐसा भी आया कि 
काग़ज - कलम लड़ पड़े।
कोन जीता ? न जन पाया कोई। 
ना जीता भाई , ना शहर , 
ना देश - विदेश जीते , 
न ग्रह - नक्षत्र जीते ,
न जीती कलम , न जीता काग़ज। 
आखिर जीता तो कोन ?
इस सवाल का जवाब पाने के लिए ,
हमने अपना मुख खोला तो ,
सबके मुख़ पर छा गई ख़ामोशी। 
उसी ख़ामोशी से हमने उत्तर पाया कि ,
जीता तो कोई नही ,
जो लड़े वो सब हार गए। 
जीती तो सिर्फ 
" ख़ामोशी "।


कृत -- कविता पाटील .........



गुरुवार, 21 मार्च 2013



अरमान कई दिल की बस्ती में उभरते है ,
मगर आसमान  के टुटते तारो की तरह वह भी ,
अक्सर टुट कर बिखर जाते है और 
किसी ओर की उम्मीद का कारण बन जाते है।

कविता पाटिल 

मंगलवार, 12 मार्च 2013



बईमान दिल 





तलाश 
















चन्द  पल काग़ज व कलम  के साथ ले हम।


चन्द  पल काग़ज व कलम  के साथ ले हम।
किसी को कह न पाए वह लिख ले हम।
गहरा नाता है काग़ज कलम और हमारा।

न समझ पाए हम ,
 न समझ पाए कोई। 
आया जो मन में लिख दिया हमने।
सही गलत की खबर नहीं।
ज़िंदगी चलती रहेगी कलम की तरह।
जैसे कलम रुक जाती है ,
वैसे ही हम भी एक दिन थम जाएँगे।

जब तक  जी रहे है तब तक
काग़ज व कलम से नाता न तोड़ेंगे।
जीवन में आते है कई उतर- चढ़ाव ,
उन्हें ख़ुशी से सह लेंगे हम।

मन  हो जाए हल्का ,
तब तक लिखते रहे हम।
कुछ को हम याद करके लिखे ,
व कुछ हमें याद करे पढ़ कर।

कविता पाटील