गुमनाम शांति
कही है दल-दल तो ,
कही है खल-बलि।
जंग का एलन होता नजर आता है।
चीख पड़ती है शान्ति जगह-जगह से।
ख़ामोशी छा जाती है तन-मन।
जाए तो जाए कहा ?
खोजे तो खोजे कहा ?
मिल पाएगी या नहीं ?
बरसों से आ रहा हूँ ढूंडता।
सुन-सुन कर कान थक गए है कि
कहाँ मिलेगी वो ?
कहीं तो नहीं वो।
आखिर वो इस संसार में है भी या नहीं ?
है तो कहाँ ?
जंगलो में , गावों में ,
शहरों में या घरों में ?
मुझे नज़र नहीं आती कही,
ड़र कर छुप तो नहीं गई ?
जब छाती है तो ऐसी छाजाती है कि
कोई है ही नहीं
और आज जब नहीं है तो मानो ,
भोले नाथ क्या ,
सारा संसार कर रहा हो ताण्डव।
कानों को पल भर आराम नहीं ,
पैरो पर पड़ गए है छाले ,
कलम नाम नहीं लेती रुकने का ,
कही क्या तो मन में क्या ?
पता नहीं अभी क्या होगा ?
काश होता हमारे पास यमराज का पन्ना ,
हम भी जान पाते अपनी मोत।
अभी बहार निकले और
न जाने कोन मारे चाकू?
पानी लिया पिने को तो निकल रक्त ,
न जाने किसका था ?
भाई-भाई लड़े , शहर - शहर लड़े ,
देश - विदेश , ग्रह - नक्षत्र लड़े ,
आखिर एक दिन ऐसा भी आया कि
काग़ज - कलम लड़ पड़े।
कोन जीता ? न जन पाया कोई।
ना जीता भाई , ना शहर ,
ना देश - विदेश जीते ,
न ग्रह - नक्षत्र जीते ,
न जीती कलम , न जीता काग़ज।
आखिर जीता तो कोन ?
इस सवाल का जवाब पाने के लिए ,
हमने अपना मुख खोला तो ,
सबके मुख़ पर छा गई ख़ामोशी।
उसी ख़ामोशी से हमने उत्तर पाया कि ,
जीता तो कोई नही ,
जो लड़े वो सब हार गए।
जीती तो सिर्फ
" ख़ामोशी "।
कृत -- कविता पाटील .........
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