मंगलवार, 26 मार्च 2013

गुमनाम शांति

कही है दल-दल तो ,
 कही है खल-बलि।
जंग  का एलन होता नजर आता  है।
चीख पड़ती है शान्ति जगह-जगह से।
ख़ामोशी छा जाती है तन-मन।

जाए तो जाए कहा ?
खोजे तो खोजे कहा ?
मिल पाएगी या नहीं ?
बरसों से आ रहा हूँ ढूंडता।
सुन-सुन कर कान थक गए है कि
कहाँ मिलेगी वो ?
कहीं तो नहीं वो।
आखिर वो इस संसार में है भी या नहीं ?
है तो कहाँ ?

जंगलो में , गावों में ,
 शहरों में या घरों में ?
मुझे नज़र नहीं आती कही,
 ड़र  कर छुप तो नहीं गई ?
जब छाती है तो ऐसी छाजाती है कि 
 कोई है ही नहीं
और आज जब नहीं है तो मानो ,
भोले नाथ क्या ,
 सारा संसार कर रहा हो ताण्डव। 

कानों को पल भर आराम नहीं ,
पैरो पर पड़ गए है छाले ,
कलम नाम नहीं लेती रुकने का ,
कही क्या तो मन में  क्या ?
पता नहीं अभी क्या होगा ?
काश होता हमारे पास यमराज का पन्ना ,
हम भी जान पाते  अपनी मोत। 
अभी बहार निकले और
 न जाने कोन मारे चाकू?

पानी लिया पिने को तो निकल रक्त ,
न जाने किसका था ?
भाई-भाई लड़े , शहर - शहर लड़े ,
देश - विदेश , ग्रह - नक्षत्र लड़े , 
आखिर एक दिन ऐसा भी आया कि 
काग़ज - कलम लड़ पड़े।
कोन जीता ? न जन पाया कोई। 
ना जीता भाई , ना शहर , 
ना देश - विदेश जीते , 
न ग्रह - नक्षत्र जीते ,
न जीती कलम , न जीता काग़ज। 
आखिर जीता तो कोन ?
इस सवाल का जवाब पाने के लिए ,
हमने अपना मुख खोला तो ,
सबके मुख़ पर छा गई ख़ामोशी। 
उसी ख़ामोशी से हमने उत्तर पाया कि ,
जीता तो कोई नही ,
जो लड़े वो सब हार गए। 
जीती तो सिर्फ 
" ख़ामोशी "।


कृत -- कविता पाटील .........



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